Wednesday 8 June 2016

महाराष्ट्र में पानी की कमी की समस्या

महाराष्ट्र में पानी की कमी की समस्या

महाराष्ट्र में पानी की कमी की समस्या के विकट रूप धारण करने के परिप्रेक्ष्य में नदियों को जोड़ने की योजना पर काफी ज्यादा चर्चा हो रही है।
सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न होने के लिए नदी ग्रिड बनाने का प्रयास
नदियों को जाड़ने से सूखे की समस्या का कुछ हल तो निकलेगा लेकिन इससे अन्य भारी समस्याएं भी खड़ी होंगी।
नदियों को जोड़ने के समर्थन में पर्यावरण से जुड़ा एक तर्क यह दिया जाता है कि नदियों में बाढ़ का आना एक समस्या है और नदी ग्रिड बनाने से इस समस्या से निपटा जा सकता है। लेकिन बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है-
नदियों में आने वाली बाढ़ विशेषकर निचले इलाकों में आने वाली बाढ़ कृषि और पर्यावरण के लिए लाभदायक है। संपूर्ण मानव सभ्यता और विकास कृषि की निरंतरता का परिणाम है, और प्राकृतिक बाढ़ जैसी घटना से बढ़कर अन्य कोई भी अन्य घटना अधिक लाभदायक नहीं है।
बाढ़ एक निर्माणात्मक भू-भौगोलिक प्रक्रिया है। गंगा के मैदान में जलोढ़ मिट्टी के जमाव के लिए बाढ़ ही जिम्मेदार है। बाढ़ का पानी अपने साथ पोषक खनिज लवणों को लाता है, जो मैदानों में जमा हो जाता है। यह प्रक्रिया कृषि के लिए महत्वपूर्ण है।
नदियों की बाढ़ खनिज पदार्थों से युक्त जलोढ़ मृदा का निक्षेप करके उपजाऊ मिट्टी का निर्माण करती है। यह पोषक पदार्थ नदियों के पानी में प्राकृतिक रूप से मौजूद रहता है। यदि नदियों को जोड़ दिया गया तो नदियों में आने वाली निर्माणात्मक बाढ़ की प्रक्रिया खत्म हो जाएगी।
नदियों में बाढ़ नियंत्रित करने से जलोढ़ मृदा की आपूर्ति बंद हो जाएगी और तटीय निक्षेप कम होने के कारण समुद्री लहरों से तटीय डेल्टा के क्षरण की समस्या पैदा हो जायेगी।
भूभौगोलिक दृष्टि से लंबे समय के बाद उपजाऊ भूमि की उत्पादकता में गिरावट आने लगेगी और तटीय इलाकों में समुद्री विस्तार बढ़ेगा। यदि वैश्विक उष्मन एक सच्चाई है और इसका प्रभाव बढ़ा तो पूर्वी तट पर समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और जलोढ़ मिट्टी का आपूर्ति बंद होने से तटीय क्षरण की गति तेज होगी।
बाढ़ के मैदान नदियों में आई बाढ़ के दौरान अतिरिक्त पानी को सोख लेते हैं और सूखे के दिनों में नदी में न्यूनतम प्रवाह कायम रखने एवं कृषि की निरंतरता बनाये रखने के लिए उपयोगी होते है। एक बार यदि नदियों को जोड़ दिया गया तो जलोढ़ बाढ़ के मैदानों का बनना बंद हो जाएगा।
पृथ्वी पर समुद्री और भूमि के जीवन व्यवस्था के बीच एक मजबूत सहजीवी सम्बन्ध स्थापित है। जल चक्र जिस स्वच्छ जल को धरती पर वर्षा के रूप में उपलब्ध कराता है वह उसे समुद्र से ही प्राप्त करता है। धरती पर वर्षा और बर्फबारी के रूप में जो पानी गिरता है वह घुलनशील तत्वों से पोषण प्राप्त करके उसे नदियों से होते हुए समुद्र में डाल देता है। यदि समुद्र में संतुलन से कम पानी लौटेगा तो उसके दो बड़े परिणाम होंगे-
समुद्र में प्राकृतिक पोषक पदार्थों की कमी हो जाएगी और समुद्री उत्पादकता बुरी तरह प्रभावित हो सकती है। जिससे जीव जंतु और पारिस्थिति तंत्र दोनों का सन्निपात हो जाएगा।
बंगाल की खाड़ी की एक अनोखी विशेषता, वहां कम घने और कम खारे पानी की एक परत है। कम खारे पानी की यह सतह समुद्र की सतह का तापमान 28डिग्री सेंटीग्रेड से ऊंचा बनाए रखने में मददगार होता है,जो बंगाल की खाड़ी में ग्रीष्मकालीन मानसून को तीव्रता देने के लिए जिम्मेदार है क्योंकि इसकी वजह से ही वाष्पीकरण अधिक होता है। भारतीय महाद्वीप का एक काफी बड़ा हिस्सा बंगाल की खाड़ी में बनने वाले हवा के कम दबाव की व्यवस्था के कारण गर्मियों में मानसूनी वर्षा हासिल करता है। यदि बाढ़ नहीं आएगी वाष्पीकरण प्रभावित होगा और मानसून बहुत ज्यादा प्रभावित होगा।
पूरे देश में जल संग्रहणों और नहरों के व्यापक जाल के निर्माण के कारण पर्यावरण की व्यापक हानि होने की आशंका है। इससे न केवल नदी घाटियों एवं उनकी संपन्नता को ही नुकसान होगा वरन इससे काफी ज्यादा विस्थापन की समस्या भी पैदा होगी।
प्रत्येक नदी का अपना पारिस्थितिकीय-तंत्र होता है। नदी ग्रिड के कारण उसमें भी असंतुलन पैदा होगा। यह नदियों का सहबंधन जटिल पारितंत्रीय समस्याओं को जन्म देगा-
नदियों के निचले तटवर्ती भागें में जैन विविधता की कमी आ जाएगी, बहुत से जीवों की मृत्यु हो जाएगी।
यदि ऐसा होता है तो गंगा नदी के निचले भाग सूखे की चपेट में आ जायेगें।
नदियों में जल की मात्रा, इसका वेग, इसका रसायन शास्त्र, इन सभी में परिवर्तन के कारण नदी के जैविक समुदायों पर प्रतिकूल प्रभाव ही पडे़गा।
राजनीतिक रूप से भी नदियों को जोड़ने की योजना से अनेक विवाद पैदा होंगे। इससे केंद्र एवं राज्यों के बीच, राज्य और राज्यों के बीच और सरकार तथा जनता और शहरी तथा ग्रामीण के आधार पर मतभेद और बढ़ने की आशंका है।
नदियों को जोड़ने की योजना से संविधान के प्रावधानों का, विशेषकर दो क्षेत्रों में सर्वाधिक उल्लंघन होने की आशंका है-
सबसे पहले इससे जल पर राज्यों के नियंत्रण का अंत हो जाएगा और इस पर केंद्र का नियंत्रण हो जाएगा।
दूसरा, इसके कारण केवल एक ही झटके में जल, जंगल और जमीन पर से सभी सार्वभौम अधिकार समाप्त हो जाएंगे। इसके कारण ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में स्थानीय समुदायों के सशक्तिकरण के लिए काम करने वाले छोटे समूहों के लिए भी खतरा पैदा हो जाएगा। इसका सबसे ज्यादा शिकार गरीब, वंचित और उपेक्षित ही होंगे।
इस योजना के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी विवाद पैदा होने की आशंका है। बांग्लादेश और पाकिस्तान इससे कुप्रभावित हो सकते हैं। नदी ग्रिड परियोजना की सफलता के लिए पड़ोसी देशों का सहयोग भी काफी अधिक आवश्यक है।
आर्थिक-सामाजिक-पर्यावरणीय दृष्टि से भी यह परियोजना किसी भी तरह व्यावहारिक नहीं होगी। आधिकारिक दस्तावेज में यह कहा गया है कि नदी ग्रिड योजना के तहत प्रायद्वीपीय भारत में किसी भी तरह का जल संग्रहण भंडार बनाने की आवश्यकता नहीं होगी लेकिन यह केवल एक तकनीकी शब्दजाल है। सरकार ने कई बांधों के निर्माण की जिन योजनाओं को स्थगित कर रखा है उन सभी को इस योजना के अंतर्गत लाकर राष्ट्रीय हित के नाम पर उनमें तेजी लाई जाएगी। इनमें से कई परियोजनाएं वित्तीय और पर्यावरणीय कारणों से रुकी हुई हैं।
विस्तृत आर्थिक और वित्तीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भी यह योजना बहुत व्यावहारिक नजर नहीं आती है। हिमालयी और प्राद्वीपीय नदियों को जोड़ने की लागत 2003 की दरों के आधार पर 560,000 करोड़ रुपये है। यह रकम-
पिछले 50 वर्ष के कुल ऋण को चुकाने के लिए पर्याप्त है।
यह राष्ट्रीय जीडीपी का कुल 25% है।
यह कुल कर राजस्व के करीब 2.5 गुने से ज्यादा है।
यह भारत की शीर्ष 500 कंपनियों की कुल बाजार पूंजी से भी अधिक है।
इसके अलावा नदियों को जोड़ने की योजना को विदेशों से भारी ऋण लेकर ही पूरा किया जा सकता है। हाल ही में कई जल परियोजनाओं को इसी प्रकार से पूरा किया गया है। क्या देश को फिर से एक नए ऋण जाल में फंसाना आवश्यक है। क्यों नहीं अन्य सफल और वैकल्पिक उपायों को प्राथमिकता दी जाती है या उनको क्यों नहीं अजमाया जाता। इन सबको बांधों की सफलता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
पिछली सदी के अंतिम दो दशकों में पूरे देश में जन आधारित बांध विरोधी आंदोलनों ने पूरी मजबूती से अपनी लड़ाई लड़ी है। इन आंदोलनों ने जल प्रबंधन के कुछ मूल अधिकारों के संदर्भ में पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
सरकार के दावे के अनुसार इस परियोजना में 79,202 हैक्टेयर वन भूमि डूब क्षेत्र में आएगी। भारत में 24 नदी घाटियां हैं। यदि सभी नदी घाटियों की सीमाओं पर ध्यान दिया जाए तो एक साधारण व्यक्ति भी कह सकता है कि नदी ग्रिड बनाने में काफी अधिक लिफ्टों की आवश्यकता पड़ेगी।
तकनीकी तौर पर भी देखा जाए तो इसमें सबसे बड़ी समस्या उत्तर भारत से पानी को लिफ्ट करके दक्कन में भेजना है। इसमें काफी अधिक ऊर्जा की आवश्यकता लगेगी जो कि इस परियोजना के शुरू में उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से काफी अधिक होगी।
यह कहा जा रहा है कि एक केंद्रीय संस्था गंगा और ब्रह्मपुत्र की घाटियों में विशाल जलाशयों का निर्माण करेगी और अतिरिक्त जल को महानदी घाटी में भेजा जाएगा। इस योजना में इतने विशाल पैमाने पर निर्माण करना होगा कि इसकी सफलता में संदेह पैदा होना स्वाभाविक है।

INDIA TODAY

No comments:

Post a Comment